सच का हत्यारा, कब तक
झूठ छल का मारा कब तक
सूरज बन तू उजियारा बांट
यूं, रात का तारा, कब तक
आंसू, खुशी के ही जचते हैं
समंदर खारा खारा, कब तक
बीच भंवर तो उतरकर देख
साहिल से नज़ारा, कब तक
नेकी की राह पे चल "विंकल"
ये बदी का सहारा, कब तक
गौरव कुमार *विंकल*
जी नमस्ते ,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार(१०-१० -२०२२ ) को 'निर्माण हो रहा है मुश्किल '(चर्चा अंक-४५७७) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
सादर
बढियां सृजन
ReplyDeleteसुन्दर
ReplyDeleteसुन्दर रचना
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