दूर - दूर तक कोई करीब नहीं , करीब - करीब वो मुझसे दूर है
बदरा बदरा लड़ पड़े
बरखा बरखा कर पड़े
धूप बुझी आंगन से
श्याम रंग उमड़ पडे़
बरसों से लगे हुये
शाख से पत्ते झड़ पड़े
अहम से ठोकर खाके
स्वपन बीच भंवर पड़े
मन की गागर से अश्रु
बूँद बूँद निकल पड़े
गौरव कुमार *विंकल*
क्या बात है प्रिय गौरव जी।मन की विकलता को बहुत मोहक शब्दों में बाँधा है आपने।छोटे-छोटे बंध बहुत सुन्दर और भावपूर्ण हैं।लिखते रहिए।मेरी शुभकामना!
धन्यवाद
क्या बात है प्रिय गौरव जी।मन की विकलता को बहुत मोहक शब्दों में बाँधा है आपने।छोटे-छोटे बंध बहुत सुन्दर और भावपूर्ण हैं।लिखते रहिए।मेरी शुभकामना!
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