Monday, May 30, 2022

मन की गागर


बदरा बदरा लड़ पड़े

बरखा बरखा कर पड़े


धूप बुझी आंगन से

श्याम रंग उमड़ पडे़


बरसों से लगे हुये

शाख से पत्ते झड़ पड़े


अहम से ठोकर खाके

स्वपन बीच भंवर पड़े


मन की गागर से अश्रु

बूँद बूँद निकल पड़े


गौरव कुमार *विंकल*

2 comments:

  1. क्या बात है प्रिय गौरव जी।मन की विकलता को बहुत मोहक शब्दों में बाँधा है आपने।छोटे-छोटे बंध बहुत सुन्दर और भावपूर्ण हैं।लिखते रहिए।मेरी शुभकामना!

    ReplyDelete