Saturday, June 18, 2022

जीवन चक्र

निकलता हूँ जब
घर से कमाने 
याद आ जाते हैं
वो जमाने

जब आप भी काम को जाते थे
आते हुये खाने को कुछ लाते थे

आज मैं भी उसी दौर में हूँ 
मुझसे भी वही उम्मीदें है
आप हमारे लिये जीते थे
अब हम उनके लिये जीते हैं

जीवन चक्र चल रहा है
वक्त आप की दुआ से 
अच्छा निकल रहा है

आज एक पुत्र, 
पिता की भांति
अपने फर्ज निभा रहा है
पर आप सा बन पाना 
मुमकिन नहीं ! 

गौरव कुमार *विंकल*

3 comments:

  1. जी नमस्ते ,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार(२०-०६-२०२२ ) को
    'पिता सबल आधार'(चर्चा अंक -४४६६)
    पर भी होगी।
    आप भी सादर आमंत्रित है।
    सादर

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  2. सुन्दर रचना, एक बार मेरे blog पर भी पधारें धन्यवाद

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  3. बहुत खूबसूरत अभिव्यक्ति

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