जब बाहर
शहर से बाहर होता हूं
तो सोचता हूं माँं अकेली है
अब कहां उसकी सहेली है।
माँ जानती है
चाहे
मुझे पहचानती है
नादान हूं
पर मैं जवान हूं
अब तो मुझे समझना चाहिए
खुदको इस घड़ी में परखना चाहिए
दिल में ये ख़्याल रखना चाहिए
इसके लिए भी
क्या निकालना कोई मुहूर्त है
की माँ को मेरी ज़रूरत है
अब मुझे चलना चाहिए।
गौरव कुमार *विंकल*
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ReplyDeleteआपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" मंगलवार 24 मई 2022 को साझा की गयी है....
ReplyDeleteपाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
बहुत बहुत धन्यवाद
Deleteबड़ी सुन्दरता से बांधा है भावों को कविता में!
ReplyDeleteसादर!
भावपूर्ण लिखा है ।
ReplyDeleteइसके लिए भी
ReplyDeleteक्या निकालना कोई मुहूर्त है
की माँ को मेरी ज़रूरत है
अब मुझे चलना चाहिए।
सच में , ये कोई बेटा सोच ले कि उसकी माँ को उसकी जरूरत है - तो माँ का जीवन ही सफल हो जाए | मार्मिक अभिव्यक्ति गौरव जी | हार्दिक शुभकामनाएं
बहुत बहुत आभार आप रचना की तह तक गए और ऐसे ही आप अपना सनेह बनाये रखना , धन्यवाद।
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