सड़क किनारे जो सोता था
आधी रात को रोता था
सुबह चेहरा खिल जाता उसका
शाम को मायूस होता था
वो बेचारा हरदम अपनों को
यतीम होकर भी खोता था
बचपन उसका गन्दी गलियों में
कूड़ा-करकट ढोता था
जिन्दगी थी उसकी ऐसी 'विंकल'
सपने तोड़कर फिर संजोता था
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