मन प्रश्नों तक ही सीमित है
उसका ऐसा होना नियमित है
क्षण भर वो उल्लास मनाता
क्षण भर में वो चिंतित है
तन पर वश मन का ही
मूर्छित सा कभी जीवित है
धावक वो ब्रह्मांड में ऐसा
जो वेदों में भी अंकित है
वक्त बेवक्त कहता लिखने को
वो विंकल को करता भ्रमित है
गौरव कुमार *विंकल*
मन की गति मन ही जाने ।
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ReplyDeleteजी नमस्ते ,
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार(४-०६-२०२२ ) को
'आइस पाइस'(चर्चा अंक- ४४५१) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
सादर
मन तो सदैव चंचल रहा है, ब्लॉग पर आपका स्वागत है।
ReplyDeleteबहुत सुंदर। मन तो चंद्रमा की तरह अपनी कलाएँ बदलता रहता है।
ReplyDeleteआप सभी का बहुत बहुत आभार
ReplyDeleteमन की महिमा कोई न जाने
ReplyDeleteतन पर वश मन का ही
ReplyDeleteमूर्छित सा कभी जीवित है
धावक वो ब्रह्मांड में ऐसा
जो वेदों में भी अंकित है///
नवीन शब्द कौशल और नूतन भावावली👌👌👌अच्छा लिखा आपने गौरव जी।हार्दिक बधाई और शुभकामनाएं आपके लिए °
बहुत बहुत धन्यवाद
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